कांग्रेस और प्रतिपक्षी पार्टियों का मुकाबला आसान नहीं

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कांग्रेस और प्रतिपक्षी पार्टियों का मुकाबला आसान नहीं

प्रेमकुमार मणि 

अगले साल की मकर संक्रान्ति समाप्त होते ही अठारहवीं लोकसभा चुनाव की गतिविधियां तेज हो जाएंगी; क्योंकि मई माह के दूसरे पखवारे तक हर हाल में नई लोकसभा का गठन सुनिश्चित होना है. कहा जा सकता है किन्हीं रूपों में राजनीतिक कवायद आरम्भ हो चुकी है. मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने अपने महत्वाकांक्षी भारत जोड़ो यात्रा में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है और इसका कुछ सकारात्मक असर भी दिख रहा है. लेकिन सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच वोटों और सीटों का इतना बड़ा फासला है कि कांग्रेस व दूसरी प्रतिपक्षी पार्टियों का उससे मुकाबला आसान नहीं होगा. 

2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने शानदार सफलता हासिल की है.  2014 के मुकाबले उसने 6.36 फीसद वोट और 21 अधिक सीटें हासिल की थी. उसे अकेले 303 और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ कोई 350 सीटें हासिल हुई थी. इसके मुकाबले उसे राजनीतिक चुनौती देने वाली कांग्रेस पार्टी को पिछले चुनाव के मुकाबले केवल 0.18 फीसद वोट और 8  सीटें अधिक मिली थी. दोनों के बीच वोटों का अंतर लगभग दुगुने का था. कांग्रेस के 19 .49 % के मुकाबले भाजपा को 37 .36 % वोट प्राप्त हुए थे. इस बीच ऐसा कुछ भी खास नहीं हुआ कि यह आशा की जाय कि कांग्रेस के दिन बहुरने वाले हैं. इस बीच विधानसभा के चुनावों से भी ऐसे कोई संकेत नहीं मिले कि यह कहा जा सके भाजपा केलिए मुश्किलें हैं. लेकिन राजनीति में निश्चित तौर पर कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. 1971 और 1984 में कांग्रेस की स्थिति आज की भाजपा से कहीं अधिक बुलंद थी; लेकिन 1977 और 1989 के चुनाव में उसकी क्या स्थिति हुई थी, इसे सब जानते हैं. लेकिन जो उन राजनीतिक हालातों से अवगत हैं, वे जेपी और वीपी के व्यक्तित्व और उस दौर के राजनीतिक घटनाक्रम से भी परिचित हैं. 1977 में भारतीय मतदाताओं का जोर आपातकाल की ज्यादतियों के विरोध पर अधिक था,  वैसे ही 1989 में उसका जोर बोफोर्स जैसे भ्रष्टाचरण के विरोध पर अधिक  था.  उपरोक्त दोनों चुनावों में विपक्षी दलों की व्यापक एकता भी संभव हुई थी. 1977 में तो अनेक कुनबों के समाजवादी, संघटन कॉंग्रेसी और जनसंघी इकट्ठे होकर जनता पार्टी के रूप में आए थे. 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा और वाम मोर्चा तो बना ही था, उसके पूर्व भाजपा छोड़ तमाम पूर्व जनता पार्टी के घटक दल जनता दल के रूप में संगठित हो गए थे और इसमें कांग्रेस के भी वीपी सिंह और अरुण नेहरू जैसे कुछ कद्दावर नेता आ मिले थे. 


क्या आज वैसी स्थितियां बन रही हैं ? कांग्रेस आंतरिक स्तर पर सुधरने की कोशिश जरूर कर रही है, लेकिन उसकी मुश्किलें इतनी हैं कि राजनीतिक  ' ग्लासनोस्त ' का सकारात्मक प्रभाव भी हुआ तो उसे आत्मसुधार में लम्बा समय लगेगा. इंदिरा -संजय के कार्यकाल में कांग्रेस विचारों और कार्यक्रमों से दूर होती गई थी. सत्ता के इर्द -गिर्द खुशामदी हमेशा जुट जाते हैं. उससे निबटने में कांग्रेस इसलिए अक्षम रही कि उसका आंतरिक लोकतंत्र -- पार्टी के भीतर का लोकतंत्र - काफी कमजोर हो गया था. पार्टी पहले पूरी तरह व्यक्ति- केंद्रित हुई और फिर वंशवाद की गंभीर बीमारी से ग्रसित हो गई. स्थिति यह हुई कि 1991 -98 के बीच सोनिया गाँधी और उनके परिवार ने कांग्रेस से दूरी बना ली; तब उसकी मुश्किलें और अधिक बढ़ गईं. पिंजड़े का पालतू  तोता आज़ादी के ख़याल ही भूल जाता है और उसे जब पिजड़े से निकाला जाता है तब वह उड़ने की नहीं, उसी सुरक्षित पिंजड़े में जाने की कोशिश करता है. क्योंकि बाह्य संकटों से जूझने का उसका जज़्बा समाप्त हो चुका होता है. कांग्रेस इंदिरा परिवार का इतना आदि हो चुका है कि उसके बिना जी ही नहीं सकता. प्रतीकों में कहें तो पानी और मछली जैसा एक रिश्ता कांग्रेस और इंदिरा परिवार के बीच बन चुका है. कांग्रेस से निकल कर कई कांग्रेस बने हैं - एनसीपी ,तृणमूल, तेलंगनाकांग्रेस , वाई एस आर कांग्रेस जैसे दल मूलतः कांग्रेस ही है,लेकिन वे सब भी प्रांतीय स्तर पर व्यक्तिवाद के ही शिकार हैं. इन कांग्रेस नामधारी पार्टियों ने राष्ट्रीय राजनीतिक संकल्प भी शिथिल कर दिए हैं. ये सब भी इकट्ठे हो जाते तो एक बात होती. लेकिन इसके कोई आसार नहीं दिखते. 


यह सब क्या इंगित करता है ? क्या इससे कोई उम्मीद बनती दिखती है कि कांग्रेस कार्यकर्त्ता भाजपा द्वारा खड़ी चुनौतियों का मुकाबला कर सकेंगे ? शायद नहीं. ऐसे में कोई करिश्मा ही  सक्षम प्रतिपक्ष खड़ा कर सकता है. ऐसा करिश्मा तब होता है,जब भ्रष्टाचार का कोई बड़ा मुद्दा आ जाय या फिर श्रीलंका या पाकिस्तान की तरह भयावह आर्थिक संकट आ जाय. ऐसे में जनता और परिस्थितियां नेता और शक्ति का निर्माण स्वयं कर लेती हैं. लेकिन फिलहाल इसकी कोई संभावना नहीं दिखती. 


प्रतिपक्ष के पास सबसे बड़ा संकट विचारों का है. समाजवादी विचार बहुत हद तक अप्रासंगिक हो चुके हैं. प्रतिपक्ष से जुड़े लगभग सभी दल उससे किसी न किसी स्तर पर जुड़े हुए थे. कांग्रेस का नेहरूवादी समाजवाद यानि मिश्रित अर्थव्यवस्था से जो लगाव था, जिसे  नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की सरकारों ने ख़त्म कर दिया. 1991 से कांग्रेस ने भी पूर्णरूप से पूंजीवादी अर्थनीति को स्वीकार लिया. भाजपा और कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में बुनियादी अंतर अब नहीं रह रह गया है. कम्युनिस्ट पूरी दुनिया में वैचारिक स्तर पर अप्रासंगिक हो चुके हैं. यही कारण है कि नई पीढ़ी के बीच उनका कोई आकर्षण नहीं रह गया है. चूँकि उन पार्टियों के पास पार्टी-कोष है और कुछ मठनुमा दफ्तर हैं, इसलिए पुराने लोग जमे हुए हैं. इनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. हाँ, समाजवादी और सामाजिकन्याय का बैनर लगाए मंडलवादी घरानों के पास थोड़ी जन शक्ति जरूर शेष है. लेकिन ये बिखरे हुए हैं और सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इनके बीच भी आंतरिक लोकतंत्र और नैतिकता का घोर अभाव है. उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजवादी पार्टी ,बहुजन समाजपार्टी , राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड का प्रांतीय स्तर पर थोड़ा प्रभाव जरूर है लेकिन इससे कोई राष्ट्रीय प्रतिपक्ष बन सकता है इसकी दूर -दूर तक कोई उम्मीद नहीं बनती. पिछले वर्ष बिहार के मुख्यमंत्री  नीतीश कुमार ने अचानक भाजपा से स्वयं को अलग कर राष्ट्रीय प्रतिपक्ष देने का ख्वाब बनाया था. दिल्ली जाकर वह उन दलों के नेताओं से मिले जो एक सीट भी किसी प्रान्त में नहीं जीत सकते. जल्दी ही उन्हें हकीकत का अहसास हो गया.  उनके इस अहसास ने बिहार में महागठबंधन की मुश्किलें बढ़ा दी हैं. लम्बे समय तक राजद और जदयू का साथ रहेगा, इसमें सन्देह है. अनुमान यही है कि इस पूरे घटनाक्रम से भाजपा को लाभ मिलना है. 


कांग्रेस कई प्रदेशों में अपने बूते भाजपा से लड़ रही है. इन प्रदेशों में उसका राजनीतिक प्रदर्शन संतोषप्रद है. जिन प्रदेशों में वह प्रांतीय दलों के साथ मोर्चा बना कर संघर्ष कर रही है, वहां उसकी स्थिति खराब होती जा रही है. कुल मिला कर स्थिति यह बन रही है कि कांग्रेस एक क्षेत्रीय दल के रूप में सिमटने लगी है. उसे अपने राष्ट्रीय स्वरूप की रक्षा हर हाल में करनी होगी. यदि यह नहीं हुआ तब उसकी मुश्किलें और बढ़ेंगी. कांग्रेस को यह बात भी स्वीकार लेनी चाहिए कि उसके सिवा प्रतिपक्ष और कोई नहीं बना सकता. नेतृत्वकारी भूमिका फ़िलहाल केवल और केवल कांग्रेस निभा सकती है. हालाकि प्रतिपक्ष के सशक्तिकरण केलिए इतना ही काफी नहीं है. कांग्रेस को संगठनात्मक स्तर पर बड़े फैसले लेने होंगे. दलितों और पिछड़े तबकों से उसकी जो दूरी बनी, उससे उसकी स्थिति काफी कमजोर हुई है.


दरअसल प्रतिपक्ष तभी ताकतवर बन सकता है जब भाजपा के विरुद्ध  राजनीतिक स्तर पर नैतिक और वैचारिक संघर्ष हो. इसके लिए आवश्यक होगा कि प्रतिपक्षी दल स्वयं अपनी समन्वित नैतिकता प्रदर्शित करें. इसके साथ एक विचार और कार्यक्रम केंद्रित राजनीति के वास्ते राष्ट्रीय सम्मेलन हो. इससे एक राजनीतिक आकर्षण विकसित हो सकता है ,जिसके इर्द -गिर्द युवा मतदाताओं और भाजपा विरोधी मतों को संगठित कर एक सक्षम प्रतिपक्ष उभर सकता है. लेकिन इसके लिए एक करिश्माई नेता की जरूरत होगी. प्रतिपक्षी दल समकालीन राजनीतिक चुनौतियों का आकलन करने में विफल रहे हैं. इसके बिना वे उसका मुकाबला कैसे करेंगे. 

राष्ट्रीय सहारा 

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