आंबेडकर और लोहिया की विरासत का संगम

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आंबेडकर और लोहिया की विरासत का संगम

अरुण कुमार त्रिपाठी

भारत की सामाजिक न्याय की शक्तियां हिंदुत्व की प्रतिक्रांति को पलटने के लिए बेचैन हैं.एक ओर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने 3 अप्रैल को आल इंडिया फेडरेशन फार सोशल जस्टिस की ओर से चेन्नई में तकरीबन 20 गैर भाजपा पार्टियां का सम्मेलन करके सामाजिक न्याय के अभियान को आगे बढ़ाने का आह्वान किया है तो दूसरी ओर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने आंबेडकर और कांशीराम की विरासत को अपने संघर्ष से एक मंच पर लाने की गंभीर पहल की है.डॉ भीमराव आंबेडकर की जयंती 14 अप्रैल पर उनकी जन्मस्थली महू में राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष जयंत चौधरी और चंद्रशेखऱ आजाद के साथ पहुंचना और उससे पहले तीन अप्रैल को रायबरेली के ऊंचाहार में मान्यवर कांशीराम की प्रतिमा का अनावरण ऐसे प्रयास हैं जो दिखाते हैं कि वे डॉ आंबेडकर और डॉ लोहिया के 67 साल पहले किए गए प्रयास को परिणाम की तक पहुंचाने में लग गए हैं.जाहिर सी बात है कि उनके इस प्रयासों से जहां गैर भाजपा और देश के लोकतंत्र को बचाने में लगी राजनीतिक शक्तियां उत्साहित हैं वहीं बसपा नेता मायावती को यह बात नागवार गुजर रही है.रायबरेली में जब अखिलेश ने कांशीराम की मूर्ति का अनावरण किया तो मायावती ने उसे नौटंकी बताया.वजह यह है कि लखनऊ में कांशीराम के साथ मूर्ति लगवाकर उन्होंने उस पर एक मात्र उत्तराधिकारी लिखवा रखा है जबकि वास्तव में वे उनके उत्तराधिकार को नष्ट कर रही हैं.

अखिलेश यादव इस बात को समझ चुके हैं कि मायावती की स्वार्थी नीतियों के कारण बसपा अपने मार्ग के भटक चुकी है.उन्होंने 1992-93 के गठबंधन को याद करते हुए 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती के साथ गठबंधन किया था और तब बुआ भतीजे के साथ आने से दोनों पार्टियों के युवा कार्यकर्ताओं में ही नहीं पुराने समाजवादियों और आंबेडकरवादियों में भी बहुत उत्साह था.लेकिन चुनाव के परिणाम आते ही मायावती ने अखिलेश को निशाने पर ले लिया.उन्हें इस बात का या तो अहसास नहीं है या वे इसे समझने को तैयार नहीं हैं कि हिंदुत्व की शक्तियां कभी नहीं चाहेंगी कि पिछड़ों और दलितों की वे वैचारिक ताकतें एकजुट हों जिन्हें जातिगत और आर्थिक असमानता को मिटाकर सच्चे लोकतंत्र को कायम करना है.

बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद 1993 में जब नारा लगा था कि `मिले मुलायम कांशीराम हवा में हो गए जयश्रीराम’ तब सांप्रदायिक ताकतों को बड़ा झटका लगा और उत्तर प्रदेश में उन्हें पराजय मिली थी.मुलायम और कांशीराम की इस एकता ने देश की राजनीति में नया समीकरण प्रस्तुत किया था.लेकिन सांप्रदायिक ताकतों ने उस गठबंधन को लंबे समय तक चलने नहीं दिया.फूट डालकर उसे विखंडित कर दिया.उसके बाद मायावती तीन बार भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं.स्वामी धर्मतीर्थ ने अपनी पुस्तक `हिस्ट्री आफ हिंदू इम्पीरियलिज्म’ में साफ कहा है कि जब इस देश में जाति व्यवस्था के विरुद्ध निचली जातियों की गोलबंदी होती है तब ऊंची जातियां किसी न किसी साजिश से उसे तोड़ देती हैं.वे बड़े बड़े सामाजिक सुधार आंदोलन और राजनीतिक परिवर्तन के आंदोलन को हजम कर लेती हैं.वैसा ही सपा बसपा गठबंधन के साथ भी हुआ.

वास्तव में भारतीय राजनीति की यह विडंबना रही है कि यहां सामाजिक न्याय और राजनीतिक स्वतंत्रता और समावेशी राष्ट्रीयता की लड़ाई लड़ने वाली ताकतों के बीच पहले अंग्रेजों ने फूट डाली और अब हिंदुत्ववादी ताकतें डाल रही हैं.इस दरार को पहले महात्मा गांधी ने महसूस किया और पूना समझौते के बाद अपने हाथ में अछूतोद्धार का कार्यक्रम लिया.हिंदू धर्म में इस सुधार के कारण गांधी के काफिले पर पुणे में हमला किया गया और 1948 में उनकी हत्या की वजहों में एक वजह यह भी थी.

इस काम को 1956 में डॉ राम मनोहर लोहिया ने हाथ में लिया और डॉ भीमराव आंबेडकर के साथ राजनीतिक गठबंधन बनाने की कोशिश की.लेकिन संयोग देखिए कि उनकी मुलाकात के पहले ही बाबा साहेब का निधन हो गया.डॉ लोहिया कहते थे कि बाबा साहेब के होने से उन्हें यह यकीन होता था कि एक दिन इस देश से जाति व्यवस्था का नाश होगा.लेकिन डॉ आंबेडकर का निधन 66 साल और डॉ लोहिया का निधन मात्र 56 साल की उम्र में हो गया.डा लोहिया उनसे बीस साल छोटे थे.लेकिन उनकी बेचैनी कम नहीं थी.इसीलिए वे 1958 में रामास्वामी नाइकर उर्फ पेरियार से अस्पताल में मिलने गए और उन्हें समझाते हुए उनके साथ खड़े होने का वचन दिया.

आज जब द्रमुक पार्टी के गठन के सौ साल होने वाले हैं और वायकम सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष शुरू होने वाला है और समाजवादी पार्टी की स्थापना के 30 वर्ष पूरे हो चुके हैं तब सामाजिक न्याय की उन तमाम घटनाओं और विचारों को एक साथ जोड़ने और आगे बढ़ाने की जरूरत है.जाति जनगणना की मांग और निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग के बहाने सामाजिक न्याय के नए आयाम सामने आ रहे हैं.इन कार्यक्रमों के अलावा यह जानना भी जरूरी है कि कि कैसे डा आंबेडकर और लोहिया का मिलन होते होते रह गया था.वास्तव में डा लोहिया ही ऐसे व्यक्ति थे जो गांधी और आंबेडकर के विचारों के बीच सेतु की तरह से काम कर सकते थे.वरना उन दोनों को एक दूसरे का शत्रु बताने वालों की कमी नहीं है.वे दोनों की अनिवार्यता को समझते थे और इसीलिए कहते थे कि अगर स्वतंत्रता आंदोलन पिछड़ी और दलित जातियों के नेतृत्व में लड़ा गया होता तो शायद भारत का विभाजन न होता.पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में ऐसा सोचने वाले लोग बहुत कम थे.बड़े नेताओं के स्तर पर तो डॉ लोहिया गांधी के बाद दूसरे ऐसे नेता थे.

डा आंबेडकर के निधन के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देने वाला डा लोहिया का निम्न कथन ध्यान देने लायक है.

``मेरे लिए डा आंबेडकर हिंदुस्तान की राजनीति के एक महान आदमी थे.और गांधीजी को छोड़कर बड़े से बड़े सवर्ण हिंदुओं के बराबर.इससे मुझे संतोष और विश्वास मिला था कि हिंदू धर्म की जातिप्रथा एक न एक दिन खत्म की जा सकती है.’’ डा राम मनोहर लोहिया, एक जुलाई 1957 .डा आंबेडकर के बारे में व्यक्त डा लोहिया के इन उद्गारों को ध्यान से पढ़ने की जरूरत है.जब 2019 में उत्तर प्रदेश में अखिलेश और मायावती के बहाने लोहियावादियों और आंबेडकरवादियों की नई एकता हुई थी तो बड़ी उम्मीद बंधी थी.क्योंकि ऐसी एकता में सत्तापरिवर्तन की अल्कालिक शक्ति तो थी ही उसके सैद्धांतिक समागम में व्यवस्था परिवर्तन की भी ताकत छुपी थी.इसकी शुरुआत तब हुई थी जब उत्तर प्रदेश के दो लोकसभा उपचुनावों में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने एक साथ आकर कमल को हराने का कमाल किया था.उसी के कारण भाजपा फूलपुर में उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की सीट तो हारी ही गोरखपुर की अजेय कही जाने वाली योगी आदित्यनाथ की सीट भी गंवा बैठी.यह तो रही सत्ता में दखल देने की ताकत लेकिन इन विचारधाराओं की सामाजिक क्रांति की शक्ति को भी पहचानने की जरूरत है.

डॉ आंबेडकर और डॉ लोहिया दोनों के भीतर भारतीय जाति व्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश की ज्वाला धधक रही थी.वे उसे भस्म करके दलितों, पिछड़ों, किसानों और मजदूरों के लिए बराबरी पर आधारित समाज बनाना चाहते थे.डॉ लोहिया इसे समाजवाद का नाम देते थे लेकिन डॉ आंबेडकर इसे गणतंत्र कहते थे.

डॉ आंबेडकर चाहते थे कि वे अपनी शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन को भंग करके सर्वजन समावेशक रिपब्लिकन पार्टी बनाएं.इसी उद्देश्य से उन्होंने डॉ राम मनोहर लोहिया से पत्राचार किया था.उधर कांग्रेस के ब्राह्मणवाद से लड़ने के लिए डॉ लोहिया को बाबा साहेब जैसे दिग्गज बुद्धिजीवी का साथ चाहिए था.इसलिए डॉ लोहिया ने 10 दिसंबर 1955  को हैदराबाद से बाबा साहेब को पत्र लिखा, `` प्रिय डॉक्टर आंबेडकर, मैनकाइंड(अखबार) पूरे मन से जाति समस्या को अपनी संपूर्णता में खोलकर रखने का प्रयत्न करेगा.इसलिए आप अपना कोई लेख भेज सकें तो प्रसन्नता होगी.आप जिस विषय पर चाहें लिखिए.हमारे देश में प्रचलित जाति प्रथा के किसी पहलू पर आप लिखना पसंद करें, तो मैं चाहूंगा कि आप कुछ ऐसा लिखें कि हिंदुस्तान की जनता न सिर्फ क्रोधित हो बल्कि आश्चर्य भी करे.मैं चाहता हूं कि क्रोध के साथ दया भी जोड़नी चाहिए.ताकि आप न सिर्फ अनुसूचित जातियों के नेता बनें बल्कि पूरी हिंदुस्तानी जनता के भी नेता बनें.मैं नहीं जानता कि समाजवादी दल के स्थापना सम्मेलन में आप की कोई दिलचस्पी होगी या नहीं.सम्मेलन में आप विशेष आमंत्रित अतिथि के रूप में आ सकते हैं.अन्य विषयों के अलावा सम्मेलन में खेत मजदूरों, कारीगरों, औरतों, और संसदीय काम से संबधित समस्याओं पर भी विचार होगा और इनमें से किसी एक पर आपको कुछ बात कहनी ही है.’’ 

सप्रेम अभिवादन सहित, आपका

राम मनोहर लोहिया. 

अलग अलग व्यस्तताओं और कार्यक्रम में तालमेल न हो पाने के कारण वे दोनों तो नहीं मिले लेकिन डा लोहिया के दो मित्र विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी ने बाबा साहेब आंबेडकर से मुलाकात की.इस मुलाकात की पुष्टि करते हुए और उसके प्रति उत्साह दिखाते हुए बाबा साहेब ने डॉ लोहिया को पत्र लिखा, `` प्रिय डॉक्टर लोहिया आपके दो मित्र मुझसे मिलने आए थे.मैंने उनसे काफी देर तक बातचीत की.अखिल भारतीय शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की कार्यसमिति की बैठक 30 सितंबर 56 को होगी और मैं समिति के सामने आपके मित्रों का प्रस्ताव रख दूंगा.मैं चाहूंगा कि आपकी पार्टी के प्रमुख लोगों से बात हो सके ताकि हम लोग अंतिम रूप से तय कर सकें कि साथ होने के लिए हम लोग क्या कर सकते हैं.मुझे खुशी होगी अगर आप दिल्ली में मंगलवार दो अक्तूबर 1956 को मेरे आवास पर आ सकें.अगर आप आ रहे हैं तो कृपया तार से मुझे सूचित करें ताकि मैं कार्यसमिति के कुछ लोगों को भी आपसे मिलने के लिए रोक सकूं.’’ 

आपका,

 बीआर आंबेडकर.

ध्यान रखिए कि उसी महीने में बाबा साहेब आंबेडकर 14 अक्तूबर 1956 को नागपुर में धम्मदीक्षा लेने जा रहे थे.उसी के समांतर वे डॉ लोहिया को भी एक साथ आने के लिए आमंत्रित कर रहे थे.यानी वे धम्मक्रांति करने के बाद राजनीतिक क्रांति की तैयारी भी कर रहे थे और उस काम में लोहिया उन्हें अच्छे साथी प्रतीत होते लगे थे.इसी आशा के साथ उन्होंने धम्मदीक्षा लेने के बाद कहा था, ``मैं धम्मदीक्षा ग्रहण करने के बाद राजनीति नहीं छोड़ूंगा.बैट लेकर तंबू में लौटने वाला खिलाड़ी नहीं हूं.’’  गौर करने की बात है कि बाबा साहेब अपने भाषणों में क्रिकेट के रूपक अक्सर इस्तेमाल करते थे.

डॉ लोहिया ने बाबा साहेब के पत्र के जवाब में एक अक्तूबर 56 को लिखा, ``आपके 24 सितंबर के कृपा पत्र के लिए बहुत धन्यवाद! आपके सुझाए समय पर दिल्ली पहुंच पाने में बिल्कुल असमर्थ हूं.फिर भी जल्दी से जल्दी आपसे मिलना चाहूंगा.आप से दिल्ली में 19 और 20 अक्तूबर को मिल सकूंगा.अगर आप 29 अक्तूबर को बंबई में हैं तो वहां आपसे मिल सकता हूं.कृपया मुझे तार से सूचित करें कि इन दोनों तारीखों में कौन सी तारीख आप को ठीक रहेगी.आपकी सेहत के बारे में जानकर चिंता हुई.आशा है आप अवश्य सावधानी बरत रहे होंगे.मैं केवल इतना कहूंगा कि हमारे देश में बौद्धिकता निढाल हो चुकी है.मैं आशा करता हूं कि यह वक्ती है और इसलिए आप जैसे लोगों का बिना रुके बोलना बहुत जरूरी है.’’ 

आपका, राम मनोहर लोहिया.

इस बीच डॉ आंबेडकर से मिलने वाले डॉ लोहिया के मित्रों ने उन्हें 27 सितंबर को पत्र लिखकर पूरा ब्योरा दिया.विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी ने डा लोहिया को लिखा, `` हम लोग दिल्ली जाकर डॉ आंबेडकरजी से मिले.75 मिनट तक बातचीत हुई.डॉ आंबेडकर आपसे जरूर मिलना चाहेंगे.वे पार्टी का पूरा साहित्य चाहते हैं और मैनकाइंड के सभी अंक.वे इसका पैसा देंगे.वे हमारी राय से सहमत थे कि श्री नेहरू हर एक दल को तोड़ना चाहते हैं जबकि विरोधी पक्ष को मजबूत होना चाहिए.वे मजबूत जड़ों वाले एक नए राजनीतिक दल के पक्ष में हैं.वे नहीं समझते कि मार्क्सवादी ढंग का साम्यवाद या समाजवाद हिंदुस्थान के लिए लाभदायक होगा.लेकिन जब हम लोगों ने अपना दृष्टिकोण रखा तो उनकी दिलचस्पी बढ़ी.हम लोगों ने उन्हें कानपुर के आमक्षेत्र से लोकसभा का चुनाव लड़ने का न्योता दिया.इस ख्याल को उन्होंने नापंसद नहीं किया.लेकिन कहा कि वे आपसे पूरे भारत के पैमाने पर बात करना चाहते हैं.ऐसा लगा कि वे अनुसूचित जाति संघ से ज्यादा मोह नहीं रखते.श्री नेहरू के बारे में जानकारी लेने में उनकी ज्यादा दिलचस्पी थी.वे दिल्ली से एक अंग्रेजी अखबार भी निकालना चाहते थे.वे हम लोगों के दृष्टिकोण को बहुत सहानुभूति, तबीयत और उत्सुकता के साथ, पूरे विस्तार से समझना चाहते थे.उन्होंने थोड़े विस्तार से इंग्लैंड की प्रजातांत्रिक प्रणाली की चर्चा की जिससे उम्मीदवार चुने जाते हैं और लगता है कि जनतंत्र में उनका दृढ़ विश्वास है.’’ 

यह पत्र बताता है कि डॉ आंबेडकर की रुचि यूरोपीय ढंग(सोवियत रूस के मॉडल) के समाजवाद में तो नहीं थी लेकिन डॉ लोहिया के जाति व्यवस्था विरोधी राजनीतिक विचारों में  उनकी दिलचस्पी थी.इसी को समझकर डॉ लोहिया अपने साथियों को लिखते हैं, ``तुम लोग डॉ आंबेडकर से बातचीत जारी रखो.डॉ आंबेडकर की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वे सिद्धांत में अटलांटिक गुट से नजदीकी महसूस करते हैं.मैं नहीं समझता कि इस निकटता के पीछे सिद्धांत के अलावा और भी कोई बात है.मैं चाहता हूं कि डॉ आंबेडकर समान दूरी के खेमे की स्थिति में आ जाएं.तुम लोग अपने मित्र के जरिए सिद्धांत की थोड़ी बहुत बात चलाओ.’’ 

इससे आगे डॉ लोहिया अपने साथियों को लिखते हैं, ``डॉ आंबेडकर को लिखी चिट्ठी की एक नकल भिजवा रहा हूं.अगर वे चाहते हैं कि मैं उनसे दिल्ली में मिलूं तो तुम लोग भी वहां रह सकते हो.मेरा डॉ आंबेडकर से मिलना राजनीतिक नतीजों के साथ इस बात की भी तारीफ होगी कि पिछड़ी और परिगणित जातियां उनके जैसे विव्दान पैदा कर सकती हैं.’’ 

तुम्हारा, डा राम मनोहर लोहिया.

बाबा साहेब आंबेडकर ने लोहिया को 5 अक्तूबर को लिखा, ``आपका 1 अक्तूबर 56 का पत्र मिला.अगर आप 20 अक्तूबर को मुझसे मिलना चाहते हैं तो मैं दिल्ली में रहूंगा.आपका स्वागत है.समय के लिए टेलीफोन कर लेंगे.’’ आपका बी.आर आंबेडकर.

लेकिन मुलाकात का वह संयोग नहीं आया और आ गया छह दिसंबर 1956 का दुर्योग.उस दिन बाबा साहेब का परिनिर्वाण हो गया और उनकी और डा लोहिया की इतिहास की धारा बदलने की संभावना वाली भेंट नहीं हो सकी.लेकिन डॉ आंबेडकर के प्रति अपनी भावना व्यक्त करते हुए लोहिया ने मधु लिमए को जो पत्र लिखा वह बाबा साहेब के प्रति लोहिया के अगाध प्रेम और अपार सम्मान को व्यक्त करने वाला है.लोहिया लिखते हैं, `` मुझे डाक्टर आंबेडकर से हुई बातचीत उनसे संबंधित चिट्ठी पत्री मिल गई है और उसे मैं तुम्हारे पास भिजवा रहा हूं.तुम समझ सकते हो कि डा आंबेडकर की अचानक मौत का दुख मेरे लिए थोड़ा बहुत व्यक्तिगत रहा है और वह अब भी है.मेरी बराबर आकांक्षा रही है कि वे मेरे साथ आएं, केवल संगठन में नहीं, बल्कि पूरी तौर से सिद्धांत में भी और यह मौका करीब मालूम होता था.मैं एक पल के लिए भी नहीं चाहूंगा कि तुम इस पत्र व्यवहार को हम लोगों के व्यक्तिगत नुकसान की नजर से देखो.मेरे लिए डॉ आंबेडकर हिंदुस्तान की राजनीति के एक महान आदमी थे.और गांधीजी को छोड़कर वे बड़े से बड़े सवर्ण हिंदुओं के बराबर.इससे मुझे संतोष और विश्वास मिला है कि हिंदू धर्म की जाति प्रथा एक न एक दिन समाप्त की जा सकती है.’’ 

हालांकि डॉ लोहिया ने डॉ आंबेडकर और जगजीवन राम जैसे दलित समुदाय से आए देश के दो शीर्ष नेताओं की तुलना करते हुए यह भी कहा था कि एक जलन की राजनीति करते हैं तो दूसरे समर्पण की.यह दोनों उचित नहीं है.इसके बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के विकृत रूप पर डा आंबेडकर और डॉ लोहिया दोनों को समान रूप से आक्रोश आता था.अगर डॉ आंबेडकर की `रिडल्स इन हिंदुइज्म’ किताब उनके जीवनकाल में इसलिए नहीं छप सकी क्योंकि उन्हें समय से वह चित्र नहीं मिल सका जिसमें भारत के राष्ट्रपति डा राजेंद्र प्रसाद ने काशी में दो सौ ब्राह्मणों के पैर धोए थे.उस किताब में डा आंबेडकर ने लिखा है,` अब ब्राह्मणों ने संदेह की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी.उन्होंने एक शरारतपूर्ण सिद्धांत का प्रतिपादन किया है.वह है वेदों के निर्भ्रांत होने का.यदि हिंदुओं की बुद्धि को ताला नहीं लग गया है और हिंदू सभ्यता और संस्कृति एक सड़ा हुआ तालाब नहीं बन गई है तो इस सिद्धांत को जड़मूल से उखाड़ फेंकना होगा.’ 

उधर बनारस में दो सौ ब्राह्मणों के पद प्रक्षालन पर टिप्पणी करते हुए लोहिया लिखते हैं, `` भारतीय गणतंत्र के राष्ट्रपति ने पुण्य नगरी बनारस में सार्वजनिक रूप से दो सौ ब्राह्मणों के पैर धोए.सार्वजनिक रूप से किसी के पैर धोना अश्लीलता है.इस काम को करना दंडनीय अपराध माना जाना चाहिए.’’

आज जब वेदों में सारी आधुनिक विद्या होने का एलान किया जा रहा है और योगियों और साध्वियों के माध्यम से ब्राह्मणवाद नए सिरे से वापस लौट रहा है तब डॉ आंबेडकर और डॉ लोहिया के अनुयायियों के समक्ष व्यवस्था परिवर्तन की गंभीर लड़ाई उपस्थित है.

समाजवादी अखिलेश यादव ने बाबा साहेब के विचारों को व्यवहार में अपनाने की पूरी तैयारी कर ली है.एक ओर वे लोहिया वाहिनी चलाते हैं तो दूसरी ओर 2021 में बाबा साहेब वाहिनी का गठन किया है.आज समाजवादी कार्यकर्ता डा आंबेडकर की जयंती को धूमधाम से मनाते हैं.अखिलेश यादव अयोध्या मंडल के दलित विधायक अवधेश प्रसाद को विधानसभा में अपने बगल में बिठाते हैं.उनके यह कार्यक्रम बाबा साहेब की उस उक्ति को चरितार्थ करते हैं कि कोई भी विचार अपने वाहकों से जिंदा रहता है.अगर उसे आगे बढ़ाने वाले नहीं रहे तो वह मर जाता है.ऐसे में समाज के आंबेडकर और लोहिया के विचारों में यकीन करने वाले पिछड़े और दलित समाज के लोगों का यह फर्ज बनता है कि वे हिंदुत्व की सोशल इंजीनियरिंग में न भटकें  और बसपा की जलन की राजनीति से बाहर आएं.क्योंकि अगर यह दोनों स्थान एक ही हैं.इन स्थानों से न तो उन्हें न्याय मिलने वाला है और न ही भारत का लोकतंत्र और उसकी एकता बचने वाली है.आज इस एकता को कायम करना समय की मांग है क्योंकि 2024 का समय 1977 और 1992 के समय से भी कहीं कठिन है.इस चुनाव में यह तय होना है कि इस देश में लोकतंत्र रहेगा या तानाशाही आ जाएगी।


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