राकेश दीवान
अकेले भोपाल और उसके आसपास कुल चार दिन में करीब 15 करोड रुपयों के फटाके फोडने वाले समाज से पिछले रविवार (15 नवंबर) हमेशा के लिए विदा हुए सौमित्र चटर्जी कौन थे - पूछना थोडी ना-इंसाफी तो है?! वैसे असली आर्यावर्त के निवासियों के लिए यह बताना भी जरूरी है कि कई बार राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने के बाद भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ (2011) से नवाजे गए 85 साल के सौमित्र चटर्जी तपन सिन्हा, मृणाल सेन, रितुपर्णो घोष, अपर्णा सेन, अजॉय कर, असित सेन जैसे फिल्मकारों के अलावा सत्यजीत रे की फिल्मों के अविस्मरणीय नायक हुआ करते थे. रे की ‘अपूर संसार’ से अपना फिल्मी सफर शुरु करने और रे की ही आधी, करीब 14 फिल्मों में अभिनय करने वाले सौमित्र दा ने दो सौ से अधिक फिल्मों के अलावा अनेक नाटकों में काम किया था. खबर यह है कि इन्हीं सौमित्र चटर्जी को अभी दो दिन पहले अंतिम विदाई देने कोलकाता शहर उमड पडा था. अपने समाज का ऐसा मान हिन्दी और उसके उप भाषा-भाषी फिल्मकारों, कलाकारों और साहित्यकारों को क्यों नसीब नहीं होता?
हिन्दी और हिन्दी से इतर भाषाओं के समाजों की अपनी कलाओं,अपने समय से दूरी का एक खामियाजा तो आधुनिक ‘गैजेट्स’ से लदी-फंदी उस पीढी पर थोपा जा सकता है जो निजी और सामूहिक स्मृतियों को मोबाइल में जमा रखती है. उसे अपनी स्मृतियों के साथ जीने की बजाए, जरूरत पडने पर ‘गूगल’ करना सुहाता है. लेकिन सवाल यह भी है कि हिन्दीे और हिन्दी पट्टी की लोकभाषाओं के हमारे अधिकांश अभिनेताओं-अभिनेत्रियों ने आखिर कौन से तीर मारे हैं जिनकी बिना पर उन्हें मान दिया जाए? हिन्दी के सिनेमा की ही बात करें तो अमिताभ बच्चन से लगाकर नसीरुद्दीन शाह तक सभी सिनेमा को केवल मनोरंजन का साधन भर मानते-बताते हैं. ऐसे में अपने समाज से जुडने, उसके सुख-दुख में शामिल होने की कितनी गुंजाइश बच रहती है? इस पृष्ठभूमि में डेढ-दो सौ फिल्में सालाना परोसने वाला सौ-सवा सौ साल का मुख्यधारा का हिन्दी सिनेमा क्या कभी सौमित्र चटर्जी सरीखा अपना भी कोई आदमकद अभिनेता पैदा कर पाएगा?
कई साल पहले ‘इंडियन पीपुल्स थियेटर’ (इप्टा) द्वारा आयोजित एक त्रि-दिवसीय व्याख्यान में ख्यात रंगकर्मी उत्पल दत्त ने कहा था कि सिनेमा या दूसरे कलारूपों का काम कोई ‘पोस्टमैन’ की तरह नहीं होता कि समाज के अनुभवों से जो मिला उसे ज्यों-का-त्यों समाज के सामने परोस दिया जाए. उसमें अपनी राजनीतिक-सामाजिक समझ, विश्लेषण और शिल्प को जोडते हुए समाज की बेहतरी की कोशिश की जानी चाहिए. इसी से मिलती-जुलती टिप्पणी ख्यात व्यंगकार हरिशंकर परसाई ने भी की थी जब वे भोपाल में ‘समय और हम’ श्रंखला का अपना भाषण दे रहे थे. परसाई ने कहा था कि साहित्यकार के लिए ‘कच्चा माल’ उसका समसामयिक समाज होता है. उस समाज से मिले अनुभवों को अपनी राजनीति, कला और शिल्प से संवारकर साहित्यकार वापस समाज को सौंपता है. यह एक द्वंद्वात्मक और सतत चलते रहने वाली प्रक्रिया है.
इन टिप्पणियों के बरक्स जब हम अपने समय के हिन्दी सिनेमा को रखकर देखते हैं तो क्या पता चलता है? क्या हमारे ‘मिलेनियम स्टार’ और उनकी तरह मनोरंजन करने में लगे उनके संगी-साथी समाज से बढती अपनी दूरी को कभी समझ पाएंगे? क्या आज के हमारे फिल्मी कलावंत अपने समय के समाज से किसी तरह का कोई तआल्लुक रखते हैं? अपने इर्द-गिर्द सप्रयास रचे जाने वाले तिलिस्म के बाहर के संसार से इस फिल्मीे बिरादरी का ‘बॉक्स ऑफिस’ के अलावा कोई और लेना-देना भी होता है? देशभर में किसान, मजदूर, दलित, आदिवासी, महिलाएं जैसे अनेक तबके दुखद हालातों में जीने को अभिशप्त हैं और कभी-कभार उन्हें सार्वजनिक रूप से उठाते भी हैं, लेकिन क्या कभी इन मुद्दों पर अधिकतर फिल्मी हस्तियों की चूं-चपाट भी सुनने मिलती है? एक जमाने में युद्ध, अकाल जैसी आपदाओं पर जनता से सहयोग लेने के लिए फिल्मी कलाकारों के फर्जी क्रिकेट मैच और छोटी-मोटी रैलियां हुआ करती थीं, लेकिन अब तो ये सब भी गुजरे जमाने की बातें हो गई हैं.
सौमित्र चटर्जी इसीलिए आदमकद कलाकार और बेहतरीन इंसान थे क्योंकि उनका अभिनय और जीवन, दोनों अपने समय, समाज और उसकी राजनीति से गहरे जुडा हुआ था. एक बडे लेखक, संपादक, कवि, नाटककार और देश के तीसरे सर्वोच्च सम्मान ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत, भारतीय फिल्मों के सबसे बडे पुरस्कार से नवाजे गए सौमित्र दा एक बेहद मामूली घर में रहते हुए आम लोगों की तरह अपने जीवन के अंतिम दिनों तक बाजार से साग-सब्जी, दवाएं और पत्र-पत्रिकाएं खरीदा करते थे. यह सहजता उन्हें अपने समाज से संवाद कर सकने का मौका देती थी. नतीजे में उन्हें समाज ने भी अंगीकार कर लिया था. उनकी मृत्यु पर ‘एनडीटीवी’ की पत्रकार ने टिप्प्णी भी की थी कि उन्हें कोलकाता शहर ने अपने में समाहित कर लिया था, मानो वे भी उसमें से एक हों. अपनी राजनीतिक समझ और जूरी के रुख के चलते उन्होंने दो बार पद्मश्री और एक बार सिनेमा का राष्ट्रीय पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया था. बॉलीवुड से आए अनेक प्रस्तावों को उन्होंने ‘अन्य साहित्यिक कामों को करने की आजादी समाप्त हो जाने’ की वजह से खारिज कर दिया था. उनकी यही सक्रियता उन्हें इतना बडा बना देती थी कि उन्हें सम्माहन-पूर्वक अंतिम विदाई देना तमाम कोलकता-वासियों को इतना जरूरी लगा था.
रचनाकारों और समाज द्वारा कलाओं, खासकर अभिनय को मनोरंजन-भर मानने का एक और नतीजा समाज के निरंतर पतनशील होते जाने में भी दिखाई देता है. हम सभी जानते हैं कि सिनेमा समाज को तरह-तरह से प्रभावित करता है, लेकिन केवल मनोरंजन, जो व्यक्ति पर उसकी पसंद-नापसंद के आधार पर असर डालता है, धीरे-धीरे व्यक्ति को अकेला करता जाता है. तकनीक की बढती क्षमताएं इस अकेलेपन को और बढाती हैं. नतीजे में दर्शक-पाठक निष्क्रिय या अधिक-से-अधिक उपभोक्ता भर होता जाता है और समाज में सामूहिकता की अंतरधारा कहीं बिला जाती है. इसके परिणाम आत्महंता होते जाते हैं. हाल का उदाहरण प्रदूषण का है जिसमें, सब जानते हैं कि हम ही अपने रोजमर्रा के कार्यकलापों से इजाफा कर रहे हैं, लेकिन एक व्यक्ति और एक समाज की हैसियत से हम उसे रोक नहीं पाते.
समाज से संवाद की यह कमी फिल्मों के अलावा हिन्दी पट्टी की दूसरी विधाओं में भी दिखाई देती है. नब्बे के दशक में आई नई अर्थनीति के पिछले कुछ सालों में लगातार उठती रही राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक समस्याओं पर अधिकांश चित्रकारों, नाटककारों, साहित्यिकों आदि ने अधिक-से-अधिक मामूली वक्तव्य भर जारी किए हैं. ऐसा कभी नहीं हुआ कि कला-संस्कृति के हमारे अलमबरदारों ने खुलकर उन सवालों पर कुछ कहा-किया हो जो आम लोगों को अहर्निश हलाकान किए रहते हैं. यहां तक कि आम जनता के इन सवालों पर अपनी-अपनी विधाओं में रचने से भी उन्हें लाज आती रही है. ऐसे में कोई सौमित्र चटर्जी बनना भी चाहे तो उसे भारी आश्चर्य ही कहा जाएगा.फोटो साभार
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