प्रेमकुमार मणि
बहुत पहले पढ़े सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के एक नाटक 'बकरी ' का एक संवाद याद कर रहा हूँ . बकरी की मालकिन बुढ़िया को जब देश का हवाला दिया जाता है ,तब मासूमियत के साथ वह कहती है -' हम देस में ना रहत हईं हुज़ूर ,गांव में रहत हईं ' ( मैं देश में नहीं रहती , गांव में रहती हूँ .) बहुत कुछ ऐसा ही कविवर सुमित्रानंदन पंत का अनुभव रहा होगा ,तभी तो उन्होंने लिखा -
भारत माता ग्रामवासिनी
तरुतल निवासिनी
आज अपने राष्ट्रीय त्यौहार पर अपने देश पर सोचते हुए सतरंगे विचार आ रहे हैं . क्या और कैसा है हमारा देश ? यह भी ; क़ि क्या होता जा रहा है ? किनका होता जा रहा है ? वे कौन हैं ,जो देश पर अमरबेल की तरह पसरते- फैलते जा रहे हैं ,उसे अपने आगोश में लिए जा रहे हैं . और वे कौन हैं जो अपने गांव और अपनी काया में ,बकरी की बुढ़िया की तरह, सिमटते जा रहे है . लगभग सवा सौ करोड़ जनगण का यह मुल्क आज मुट्ठी भर लोगों की जागीर बन कर रह गया है ,तो क्यों .
स्पष्ट कर दूँ , मैं भारत -व्याकुल प्राणी नहीं हूँ . हमारा देश प्यारा जरूर है ,क्योंकि यही है जो मेरा है ; लेकिन यह न्यारा भी है यह नहीं कह सकता . हाँ , न्यारा बनाना जरूर चाहूंगा इसे . इतना न्यारा कि पूरी दुनिया को निमंत्रित कर सकूँ कि आओ म्हारे घर, देखो म्हारा घर . हमारे लिए देश का अर्थ है एक घर जहाँ भाईचारा ,बराबरी और प्रेम हो . एक नागरिक के रूप में हमारी जिम्मेदारी है कि संविधान - संहिता के रूप में हमारे पुरखों ने हम पर देश में गणतंत्र -यानि जनता के राज की जो जिम्मेदारी सौंपी है ,उसका कुशलता से संवहन करें . यहां नई मनुष्यता का निर्माण करें . जाति ,धर्म और संकीर्णताओं से दूर-- एक ऐसी मनुष्यता का ,जिसका स्वप्न हमारे संविधान निर्माताओं ने देखा था . बचपन में हमलोगों ने संकल्प -गीत गाये थे -
देश हमारा,धरती अपनी, हम धरती के लाल
नया संसार बसायेंगे , नया इंसान बनाएंगे .
हमारा देश धरती का एक हिस्सा है ,ऐसा हिस्सा जिसपर हम है ;इसलिए हमारी जिम्मेदारी है की इसे खूबसूरत बनायें . इसे खूबसूरत बनाकर ही दुनिया में हम गर्व से घूम सकेंगे .
लेकिन कुछ लोग हैं कि तोप -तलवारों और मिसाइलों से भारत बनाना चाहते हैं . देश के भीतर और बाहर कोहराम खड़ा कर वे वर्चस्व और दादागिरी स्थापित करना चाहते हैं . आप तनिक ठहर कर विचारिये कि वे देश को कैसा बनाना चाहते हैं . क्या सचमुच ऐसा देश हमारे ऋषि -मुनियों ,कवियों और दार्शनिकों ने बनाना चाहा था ? मेरा मन उत्फुल हो जाता है जब सोचता हूँ हमारे देश का नाम भारत किसी राजा ने नहीं ,किसी कवि अथवा कवियों के समूह ने प्रस्तावित किया . शकुंतला के बेटे भरत के नाम पर संभवतः यह भारतवर्ष बना . करुणा ,संवेदना , सौंदर्य और पीड़ा का जैसा समावेश शकुंतला और भरत की कथा में है ,उससे मन बार -बार भावुक हो जाता है . लेकिन वह भावुकता ,वह संवेदना और करुणा हम अपने राष्ट्र में शामिल क्यों नहीं कर पाते . हम भारत को मातृ रूप देकर भारतमाता तो बना देते हैं ,लेकिन उसमे मातृत्व के संस्कार -यथा दया और करुणा - क्यों नहीं समावेशित कर पाते . हम राष्ट्र को क्रूर ,अहंकारी और वर्चस्वकारी ही क्यों बनाना चाहते हैं ?
आज देश में गणतंत्र स्थापित होने के इस पर्व पर क्या हम संकल्प लेना चाहेंगे कि देश से गरीबी , गैरबराबरी और अशिक्षा दूर करने हेतु अपनी तरफ से कुछ प्रयास करेंगे . गन्दगी और गैरबराबरी सतत उभरते रहने वाली चीजें हैं . एक रोज स्नान कर आप पूरी जिंदगी स्वच्छ नहीं रह पाएंगे . स्वच्छता और समता केलिए निरंतर चौकसी बरतनी होती है . हम इसे अपने राष्ट्र के संस्कार या धड़कन में शामिल करने का प्रयास कर सकें ,यही कोशिश होनी चाहिए .
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