ध्रुव गुप्ता
उन्नीसवीं सदी के आखिरी सालों और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध ने भारतीय अर्द्धशास्ट्रीय और सुगम संगीत का स्वर्णकाल देखा था. वह दौर ठुमरी, दादरा और तराना के अलावा कजरी, पूर्वी, चैता और ग़ज़ल गायिकी के उत्कर्ष का दौर था. इन संगीत शैलियों के विकास में उस दौर की तवायफ़ों के कोठों का सबसे बड़ा योगदान था. तब कोठे देह व्यापार के नहीं, संगीत और तहज़ीब के केंद्र हुआ करते थे. कोठों की गायिकाओं को भाषा, संगीत और तहज़ीब के कड़े प्रशिक्षण से गुजरना होता था. कोठों के बीच गायन की अंतहीन प्रतिस्पर्द्धा ने देश को भारतीय संगीत की दर्जनों बेहतरीन गायिकाएं दी हैं.
उस दौर की कुछ सबसे अच्छी गायिकाओं में कलकत्ते की गौहर जान, इलाहाबाद की जानकीबाई छप्पनछुरी, बनारस की विद्याधरी बाई, बड़ी मोती बाई और हुस्नाबाई, मुजफ्फरपुर की ढेला बाई, लखनऊ की हैदरजान और जोहरा, अंबाले की जोहरा बाई अंबालेवाली, आगरे और पटने की जोहरा और मेरठ की पारो के नाम हैं. वे ऐसी गायिकाएं हैं जिनके बगैर अर्द्धशास्ट्रीय और ग़ज़ल गायिकी की कल्पना नहीं की जा सकती. अंबालेवाली जोहरा बाई ने कई हिंदी फिल्मों में भी अपनी गायिकी के जौहर दिखाए थे.
संगीत के उस सुनहरे दौर में गौहर जान और जानकीबाई छप्पनछुरी दो ऐसी गायिकाएं थीं जिनका रजवाड़ों और नवाबों की महफिलों तथा संगीत की आम सभाओं पर लगभग एकच्छत्र कब्ज़ा था. उन दोनों को अर्द्धशास्ट्रीय और ग़ज़ल गायिकी को ग्लैमर और शोहरत दिलाने का श्रेय दिया जाता है. वे ऐसी गायिकाएं थीं पहली बार जिनके गीतों के सैकड़ों रेकॉर्ड्स ग्रामोफोन कंपनी ऑफ इंडिया ने बनाए. फैज़ाबाद की तवायफ़ मुश्तरीबाई की संतान बेगम अख्तर इस सिलसिले की शायद आखिरी और सबसे लोकप्रिय कड़ी रही थीं जिनके बगैर ग़ज़ल गायिकी का इतिहास नहीं लिखा जा सकता.
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