गीतांजलि श्री की किताब 'रेत समाधि'!

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गीतांजलि श्री की किताब 'रेत समाधि'!

सिद्धेश्वर सिंह 

कल शाम की घुमत  - फिरत के समय मित्र अविनाश का फोन आया और अपन ने कुछ घरु बातों के अलावा देर , दूर तक इन दिनों चर्चा में आई गीतांजलि श्री की किताब 'रेत समाधि'  पर बात करते - करते इस लेखक के शुरुआती दिनों के एकेडमिक काम और उनकी सृजनयात्रा पर लम्बी बात की. उस दौर की कुछ  उनकी कुछ कहानियों और खासतौर पर 'माई' को याद किया कि कैसे कोई लेखक अपने काम से अपने लिए एक अच्छी व ठीकठाक जगह बनाता है. 

अविनाश खूब साफ निगाह वाले व्यक्ति हैं और खूब पढ़ाकू भी. हमने याद किया कि हम लोगों ने किस तरह अपनी नौकरी के आरंभिक दिनों में सुदूर अरुणाचल प्रदेश के पासीघाट में रहते हुए अपने आप को निरंतर अपडेट रखा; खूब लिखा -पढ़ा-पढ़ाया. किस - किस तरह जतन करके किताबें मंगाई और पत्रिकाओं की व्यवस्था की. लंबे समय तक 'रीडर्स फोरम' संचालित किया. यह तब की बात है जब हमारे आसपास इंटरनेट और ऑनलाईन शॉपिंग जैसी किसी चीज की कोई आहट नहीं थी और डाक पार्सल ,वीपीपी के अलावा अक्सर गुवाहाटी ,कोलकाता,बनारस ,पटना और दिल्ली जाने वालों से मिन्नतें कर के किताबें मंगाई जाती थीं.  वे लोग खोजकर लाते भी थे. अब सोचता हूँ कि तमाम संचार संसाधनो व सुविधाओं के बीच रहते हुए भी हमारे आसपास पढ़ना कितना कम हुआ है और यह भी कि बिना पढ़े बतकही  की बात बलवती हुई है. दूसरे के स्वीकार के प्रति नकार का भाव भयावह  तरीके से बढ़ा है. 

'रेत समाधि' और बुकर के बाबत कहा जा रहा है कि यह वाला पुरस्कार अंग्रेजी अनुवाद को मिला है ;हिंदी की मूल किताब को नहीं. मुझे लगता है कि हिंदी की साहित्यिक दुनिया की सार्वजनिकता में अनुवाद को दोयम दर्जे का काम समझने की प्रवृत्ति को  जाने अभी बहुत देर लगेगी. मुझे हमेशा लगा है अनुवाद के माध्यम से ही भारतीय व वैश्विक साहित्य के द्वार हम सबके लिए खुले हैं. तनिक सोचिए कि अनुवाद न हो तो लिखत - पढ़त का यह संसार कैसा दिखाई देगा ! हाँ ,अनुवाद के स्तर और उसकी गुणवत्ता की बात को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए लेकिन अनुवाद के महत्व को ही सिरे से गायब कर देना अच्छी बात नहीं है. 


'रेत समाधि' एक उपन्यास के रूप में कैसा है यह पढ़ने वाले जानते हैं. उसका अनुवाद कैसा है ;यह भी पढ़ने वाले ही जानते हैं लेकिन हिंदी के इलाके में बुकर का आना एक अच्छी बात है. बुकर या किसी भी पुरस्कार के पीछे की मंशा व राजनीति की बात से कोई अस्वीकार नहीं है ;होना भी नहीं चाहिए. इस तंत्र को समझना भी जरूरी है लेकिन यह मेरे दोस्त अविनाश जैसे तमाम - तमाम पढाकुओं के लिए खुश होने का अवसर है तो मेरे भाई - बहन  इसमें दिक्कत कहाँ है ! मैं तो यही कहूंगा कि  यदि किताब नहीं पढ़ी है तो पढ़िए ;दूसरों को पढवाईये आपसदारी में इस पर बात कीजिए.  हर समय यह  बेबात का नसूढ़पना हिंदी की सेहत के लिए ठीक नहीं. 

'रेत समाधि' को बुकर मिलने पर पर इसके लेखक के वक्तव्य को जिस तरह कतर कर एक फौरी और निहायत खराब किस्म का उल्था कर के साझा किया जा रहा है ;उसकी फारवर्डिंग हो रही है वह ठीक बात नहीं.  मन हो तो बुकर की आधिकारिक साइट पर जाकर समारोह का पूरा वीडियो देखिए. मैं अभी जिस भूगोल में रहता हूँ वहाँ 'डिलीवरी' नहीं होती है . बस डाक का ही आसरा होता है फिर भी आश्वस्ति है लिखे - पढ़े से प्रेम बरकरार है. यह भी आश्वस्ति है मुफस्सिल में रहने वाले अविनाश जैसे हमारे दोस्तों का लिखना - पढ़ना - गुनना जारी है. 

और अंत में (प्रार्थना के शिल्प में नहीं) यही खुश होइये कि इस बार  एक हिंदी किताब को मान मिला है ; हिंदी से अनुवाद को भी.  गीतांजलि श्री और डेजी रॉकवेल इसी दुनिया की ही  हम जैसी ही निवासिनी हैं जिसमें रोज का  हमारा होना और सोचना है. हमारे आसपास दुखी होने और कुढ़ने - कुपित होने के बहुत सारे उपादान हैं लेकिन खुश होने मौके कम हैं ; कम हो रहे हैं तो देर न करिए एक बढ़िया - सी चाय पीजिए और  गौर से टटोलिए कि आपके आसपास कहीं  ऐसा तो नहीं हो गया है कि सब कुछ उपलब्ध है; सब कुछ , बस कोई किताब ही नहीं बची है !

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