मनोहर नायक
आज 28 अगस्त को फ़िराक़ साहब का जन्मदिन है .... उनकी शख़्सियत , उनकी शायरी, उनके क़िस्से, उन पर क़िस्से भुलाये नहीं भूलते... चित्त में कहीं गहरे वे सुरक्षित हैं, जिनकी याद भले न आये पर वे भूलते भी नहीं ... ' मुद्दत गुज़री तेरी याद भी न आयी हमें / और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं '! फ़िराक़ साहब से मिलना भी हुआ... अनेक बार.... पहली बार परम मित्र रामजी पांडे के साथ उनके ऑफ़िस हिंदुस्तानी अकादमी से दो गुलाब लेकर हम दोनों साइकिल पर डबल बैंक रोड पर उनके घर जन्मदिन की बधाई देने भर दोपहर पहुंचे थे... बमुश्किल तब मिलने को तैयार हुए जब उनके सेवक से कहलवाया कि जन्मदिन की मुबारकबाद देने आये हैं... बहुत ख़ुश होके मिले, बातें की... जन्मदिन जैसी चीज़ के वहाँ कोई निशान नहींं थे... तब तक कोई वहांँ आया ही नहीं था.... उनसे सबसे यादगार, पुरलुत्फ़ और ऐतिहासिक मिलना तब हुआ जब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ उनसे मिलने उनके घर गये, मित्र देवी प्रसाद त्रिपाठी के सौजन्य से मुझे यह मौक़ा मिला... दूसरा जो चित्र है . यह भी उनके जन्मदिन का है... अंतिम जन्मदिन का... इसके बाद वे इलाज के लिये दिल्ली गये, वहां से फिर उनकी निर्जीव देह ही लौटी .
फ़िराक़ साहब जीते जी किंवदंती बन चुके थे... उनकी मृत्यु के बाद हमारे अख़बार ' अमृत प्रभात ' के रविवारी सम्पादक और कवि मंगलेश डबराल ने कुछ लिखने को कहा तो उन पर क़िस्सों को लेकर ही लेख लिखा... अनेक लोगों से ये सुने ... अमृत राय, केशवचंद्र वर्मा, लक्ष्मीकांत वर्मा आदि तमाम जनों ने जानकारी बढ़ायी ... इलाहाबाद में पढ़े, इलाहाबाद और फ़िराक़ साहब के मुरीद कवि और अत्यंत प्रिय वीरेन डंगवाल के पास अनेकानेक क़िस्से थे.....इलाहाबाद के दिनों की स्मृतियों वाली उनकी कविता ' ऊधौ, मोहि ब्रज' कविता में फ़िराक़ की याद भी कौंधती है :
धीमे- धीमे से डग भरता वह अक्टूबर
गोया फ़िराक़ .
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर , इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद फ़िराक़ साहब की पार्थिव देह विश्वविद्यालय परिसर और अंग्रेज़ी विभाग के प्रांगण में लाने पर बहुत नाराज़ थे , मुझसे बोले , ऐसा तो गंगानाथ, अमरनाथ झा किसी के साथ नहीं किया गया... ' ये क्या थे फ़िराक़, ग़ैरज़िम्मेदार और शायरी भी क्या, तुम सामने हो, पास हो, देखूं कि बात करूं '. फ़िराक़ साहब पर ' अमृत प्रभात ' के अपने स्तम्भ ' शहर में घूमता आईना ' में वीरेन भाई ने फ़िराक़ साहब पर लिखा, ' तमाम ओछे ,सनक भरे और विद्वेषपूर्ण आरोपों का जवाब फ़िराक़ की शायरी देती थी , जो तमाम आरोपों पर लुहार के हथौड़े की तरह गिरती थी .' वैसे एक क़िस्सा येँ कहा जाता है कि शायद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समारोह में जवाहरलाल नेहरू बोल रहे थे . किसी बात पर ईश्वरी प्रसाद ने खड़े होकर कहा कि नेहरूजी ग़लत बता रहे हैं तो फ़िराक़ साहब ने अपनी सीट पर बैठे हुए उनकी ओर पलट कर कहा, sit down ishwari prasad , you are a crammer of history and he is a creator of history ( बैठ जाओ ईश्वरी प्रसाद, तुम इतिहास को रटने वाले हो और वे इतिहास के निर्माता हैं).
फ़िराक़ को आहटों का कवि कहा जाता है . वे ख़ुद कहते थे उनकी शायरी रात - रात जगकर पूरी होती है.. रात, याद, नीमशब ,शब रंग उनके यहाँ ख़ूब हैं ... ' हर जर्रे में कैफ़ीयते नीमशबी है / ऐ साक़िए -दौरांँ यह गुनाहों की घड़ी है '... ' हम लोग तेरा ज़िक्र अभी कर ही रहे थे / ऐ काकुले शब रंग तेरी उम्र बड़ी है,... ' तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में / हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं '... ' होते होते सुबह हुई है / कटते कटते रात कटी है'... 'अमृत प्रभात' के पहले पेज पर फ़िराक़ साहब की चिर निद्रा में सोयी तस्वीर के नीचे कैप्शन में उन्हीं शेर था....
बेख़्वाब रखे था हमें जो तमाम उम्र
वही ग़म किसी रोज़ सुला जाये है .
फ़िराक़ को लेकर बहुत अनर्गल बातें भी थीं जो उन्हें चिड़चिड़ा, बददिमाग़ प्रचारित करती थीं पर वे अत्यंत सहज,पुरमज़ाक और संवाद प्रिय व्यक्ति थे . जो तस्वीर यहाँ आप देख रहे हैं वह समारोह इसकी मिसाल था... महादेवजी का इंतज़ार हो रहा था... श्रोताओं में सामने अमरनाथ झा और फ़िराक़ साहब के क्लासफ़ेलो और दोस्त वकील सेहत बहादुर बैठे थे... उन्हें सम्बोधित करते हुए फ़िराक़ सुनाये जा रहे थे ... माइक चालू था, फ़िराक़ साहब की बातें और लतीफ़े भी चालू थे.. श्रोता हंसते हुए बेहाल थे . समारोह में उन्होंने अपनी बात के शुरू में ही कहा था कि नये तराने छेड़ो,अब मेरे नग़्मों को नींद आती है . रामजी राय की फ़िराक़ साहब पर संस्मरणों की अद्भुत, दिलचस्प पुस्तक है... अपने विश्वविद्यालयी दिनों में रामजी भाई मित्रों के साथ प्राय: फ़िराक़ साहब से मिला करते थे.... ये संस्मरण फ़िराक़ साहब के व्यक्तित्व की अनेक नयी परतें खोलते हैंं . अगर आत्मीय संग- साथ हो तो फ़िराक़ साहब हज़ार ज़ुबां से नग़्माज़न होते, लेकिन मूढ़ता ,कूपमंडूकता और शोबाज़ी का शिद्दत से, गरिया कर भी विरोध करते . वे उस पीढ़ी के लोगों में अन्यतम थे जो इस देश को, जनता को, परम्परा, विरासत और विविधता को जानते, समझते और सराहते थे और अपने शायरी में गाते थे....तभी वे लिख पाये :
सरज़मीने हिंद में अक़्वामे आलम के तमाम
क़ाफ़िले बसते गये, हिंदोस़्तां बनता गया .
फ़िराक़ साहब आकाशचारी नहीं थे, न दो दुनियाओं में विभाजित थे, वे इसी ज़मीं, इसी दुनिया के थे... एक नयी दुनिया की उनकी उम्मीदें इसी धरती से बंधी हुई थीं...
बू ज़मीं से मुझे आ रही है तेरी
तुझको क्यों ढ़ूंढिये आसमां-आसमां
फ़िराक़ साहब बड़े जटिल व्यक्तित्त्व वाले इंसान थे . अपनी निजी ज़िदगी से हैरान , परेशान , बेज़ार... इस बारे में उन्होंने ख़ुद बहुत लिखा है... कालिब में रूह फूंक दी या ज़हर भर दिया / मैं मर गया हयात की तासीर देखकर... या, फ़िराक़ अपनी क़िस्मत में शायद नहीं थे / ठिकाने के दिन या ठिकाने की रातें . लेकिन फ़िराक़ हर महफ़िल की जान होते थे और हर अंजुमन के मरकज़ ... उनके श्रोता उनके उतावले दर्शक भी होते थे... उनका श्रोता आमतौर पर प्रसन्न और उत्सुक होता था... कुछ उम्दा और दिलचस्प सुनने का इत्मीनान उसे बाँधे रखता था... वह एक हद तक फ़िराक़ साहब से ख़ौफ़ भी खाता था . निजी और सार्वजनिक को फ़िराक़ साहब ने अलग कर रखा था.... ' मनसबे-दिल ख़ुशी लुटाना है / ग़मे- पिन्हा की पासबानी भी ' .
पत्रिका हाउस ( ताशकंद रोड) में एक बड़े कमरे में 'नार्दन इंडिया पत्रिका ' और ' अमृत प्रभात' के रिपोर्टर साथ में बैठते थे.. पत्रिका के चीफ़ रिपोर्टर एस के दुबे फ़िराक़ साहब की शवयात्रा, अंत्येष्टि पर ख़बर बना रहे थे, और मैं अपने अख़बार के लिए... तभी यूएनआई के संवाददाता अपने समय के जाने- माने पत्रकार प्रकाश शुक्ला ने दरवाज़े पर आकर आवाज़ लगाई... कस दुबे का लिख रहे हो मे.... आत्मविभोर दुबेजी ने टाइपराइटर से पेज निकालते हुए बताया कि फ़िराक़ पर लिख रहा हूँ और कुछ पंक्तियाँ पढ़कर सुनाई... उनका अर्थ यह था कि आज शाम छह बजे, रामघाट पर उर्दू के शायर रघुपति सहाय :फ़िराक़ ' की अंत्येष्टि कर दी गयी... यह सुनकर शुक्लजी ने ज़ोर से इलाहाबादी धत्त् की और कहा, अमां ये उर्दू शायर, ये रामघाट क्या है... अमां बड़ी चीज़ों को बड़ी से जोड़ो... मैं पांच टेक की ख़बर देकर आ रहा हूँ.. मैंने लिखा है... मशहूर शायर रघुपति सहाय 'फ़िराक़ गोरखपुरी' की पार्थिव देह को आज गंगा के किनारे, सूर्यास्त के समय पंच तत्वों में विलीन कर दिया गया... . शुक्लाजी की बात से कमरे में कुछ देर सन्नाटा-सा छा गया था :
आह यह मजम- ए -अहबाब, ये बज़्मे ख़ामोश
आज महफ़िल में फ़िराक़े - सुख़नआरा भी नहीं
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