यशोदा श्रीवास्तव
:जानी मानी साहित्यकार व जनता समाजवादी पार्टी की केंद्रीय सदस्य रेखा यादव अपने संघर्षों व जुझारूपन के लिए नेपाल के सियासत में एक अहम मुक़ाम रखती हैं. नेपाल में उन्हें राजनीति व साहित्य का संगम भी कहते हैं. दोहरी व्यस्तताओं के बावजूद वो लिखने पढ़ने के लिए समय निकाल लेती हैं. हिंदी व नेपाली दोनों भाषाओं में दक्ष रेखा यादव की दो कृतियाँ नेपाली भाषा मे उपन्यास “आत्मजा”और हिंदी में कविता संग्रह “तुम बिन” प्रकाशित हो चुकी है. प्रस्तुत है राजनीति और साहित्य के प्रति हिंदी और नेपाली दोनो भाषाओं में समान अधिकार रखने वाली रेखा का नजरिया.
उनसे जब नेपाल की मौजूदा राजनीति के बाबत चर्चा हुई तो उनका नजरिया साफ है. वे कहती हैं कि दरअसल नेपाल गहरे राजनैतिक संकट से गुज़र रहा है.राजनैतिक अस्थिरता जैसे नेपाल की नियति बन गयी है. प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली के संसद भंग किये जाने के फैसले को सर्वोच न्यायालय ने पलट कर ऐतिहासिक निर्णय दिया है.ओली का यह कदम असंवेधानिक था और लोकतंत्र विरोधी भी.संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नही है कि मध्यविधि चुनाव नेपाल पर थोपा जाए .कोर्ट के फैसले के बाद प्रतिनिधि सभा एक बार पुनर्जीवित हो गयी है. उम्मीद की जानी चाहिए कि राजनैतिक अस्थितरता के बादल अब छट जाएंगे.
उनके नजरिए से राजनैतिक अस्थिरता का कारण भी स्पष्ट है. वे कहती हैं कि चूंकि नेपाल लंबे समय तक माओवाद की समस्या से जूझता रहा.उससे पहले राजशाही के रूप में तानाशाही शासन था.लोकतंत्र बहाली के बाद कतिपय सियासी दलों की सत्ता लोलुपता ,राष्ट्रीय हितों पर व्यक्तिगत आकांक्षाओं का सर्वोपरि होना आदि राजनैतिक अस्थिरता के कारण रहे है.जनता में राजनैतिक चेतना का अभाव भी एक कारण है जिस वजह से किसी एक दल की सरकार चुनने में असमंजस बनी रहती है.
मधेश और मधेशी राजनीति की दशा पर भी वे स्पष्ट राय रखती हैं.वे खुद एक मधेशी दल से ताल्लुक रखती हैं फिर भी उनका मत है कि मधेश और मधेशियों के साथ नेपाल की सभी सियासी दलों का रवैया लगभग एक जैसा ही है.मधेशियों की स्थिति ठीक नही है.शैक्षणिक,सामाजिक व राजनैतिक रूप से काफी पिछड़े हैं.सरकारी नौकरियों में मधेशियों की तादाद नगण्य है.मधेश के लोगों में पिछले कुछ वर्षों में राजनैतिक चेतना ज़रूर आयी है लेकिन अपने अधिकारों के लिए अभी उन्हें लंबी लड़ाई लड़नी होगी.
चूंकि वे एक नामचीन साहित्यकार भी हैं इसलिए यह सवाल बनता है कि वे साहित्य और राजनीति में क्या समानता देखती हैं? इस सवाल पर भी उनका बेहद साफ और सधा हुआ जवाब है. कहती हैं कि साहित्य और राजनीति को लेकर लंबे समय से विमर्श होता रहा है.जैसा कि सर्वविदित है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है .साहित्य पूरे समाज से जुड़ा हुआ है जिसका एक अनिवार्य अंग राजनीति है.दोनो समाज से जुड़े हैं.इस वजह से कह सकती हूं कि सियासत और साहित्य एक दूसरे के बेहद करीब होते हैं.
अपने उपन्यास “आत्मजा “और काव्य संग्रह “तुम बिन” के बारे में बताती हैं कि उपन्यास आत्मजा व तुम बिन समाज मे व्याप्त असमानताओं ,रूढ़ियों,और विभेदों पर आधारित है.इसका क्षेत्र नेपाल के तराई का विराट नगर व भारत के कुछ हिस्सों तक फैला है.मेरे इस उपन्यास का उद्देश्य समाज को आधुनिक, प्रगतिशील व विवेकशील बनाना और एक आदर्श समाज की स्थापना करना है.
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